Samudra manthan (समुद्र मंथन)
आज आपके सामने samudra manthan ki story hindi language में प्रस्तुत की गई हैं।
Samudra manthan की कहानी का उल्लेख विष्णुपुराण के साथ महाभारत में भी मिलता है।
समुद्रमंथन की यह पौराणिक घटना कैसे घटित हुईं थी और क्यों घटित हुई थी ,इसके लिए कौन जिम्मेदार था ,समुद्र मंथन से क्या प्राप्त हुआ था? ऐसे सारे सवालों के जवाब आपको इस कहानी से प्राप्त होंगे।
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➡️समुद्रमंथन क्यों हुआ था?
Samudra manthan एकमात्र ऐसी पौराणिक घटना थी,जिसमे देव और दानव एकदुसरे के शत्रु होते हुए भी समुद्रमंथन करने के लिए एकसाथ आए।
पौराणिक समय में दुर्वासा नाम के अति क्रोधी ऋषि हुआ करते थे।उनके क्रोध से संसार के सभी मनुष्य और देव–दानव भी डरते थे।
ऋषि दुर्वासा भगवान नारायण के भक्त थे।उन्होंने भगवान नारायण के अति प्रिय पारिजात पुष्प की माला बनाई । उसी वक्त वहां देवों के राजा इंद्र अपने वाहन ऐरावत के साथ आ पहोंचे।
ऋषि दुर्वासा ने सोचा कि यह माला मैं इंद्रदेव को भेट स्वरूप दे देता हूं।उन्होंने इंद्र देव को वह माला पहना दी।
लेकिन इंद्र देव में इतना अहंकार था कि,उन्हे यह माला तुच्छ लगी ।उन्होंने वह माला अपने गले से बाहर निकलकर अपने वाहन ऐरावत को पहना दी।परंतु ऐरावत तो हाथी था! उसने परिजात की माला को अपने पैर के नीचे कुचल दी।
यह सब देखकर ऋषि दुर्वासा को बहुत क्रोध आ गया। क्रोध में आकर उन्होंने इंद्र देव के साथ–साथ समस्त देव और स्वर्ग लोक को श्राप दे दिया।
ऋषि दुर्वासा ने कहा–"सभी देव और स्वर्ग लोक श्री(लक्ष्मी) हीन हो जाए।"
दुर्वासा ऋषि के श्राप के कारण देवों की सारी संपत्ति और श्री(माता लक्ष्मी)भी समुद्र में समा गए।
सभी देव इस समस्या का समाधान कैसे होगा? इसके लिए भगवान नारायण
के पास आए।उन्होंने इसका उपाय बताया कि,यदि देव और दानव साथ मिलकर समुद्र मंथन करेंगे तो देवों की सारी संपत्ति और शक्ति उन्हे वापस मिल सकती है।
➡️ दानवों ने समुद्र मंथन में भाग क्यों लिया था?
वैसे तो दानव samudra manthan में भाग नही लेते।लेकिन उन लोगो को अमृत कलश का लालच देकर सम्मिलित किया गया।
➡️ समुद्र मंथन के दौरान दानवों का राजा कौन था?
Mythology के अनुसार उस वक्त दानवों का राजा बलि था,जो विष्णु भक्त प्रह्लाद का पौत्र था।
➡️समुद्र मंथन कैसे किया गया?
भगवान नारायण के आदेशानुसार मदरांचल पर्वत को समुद्र में लाया गया और भगवान शिव के वासुकी को रस्सी बनाकर समुद्र मंथन शुरू किया।
लेकिन समुद्र तो बहुत ही गहरा होने के कारण मदरांचल पर्वत समुद्र में खड़ा ही नहीं रह सकता था।इसीलिए भगवान नारायण ने कछुआ का अवतार धारण करके मदरांचल को अपनी पीठ पर धारण कर दिया।
देवों ने वासुकी की पूंछ और दानवों ने वासुकी के मुख की तरफ पकड़कर मंथन किया।
➡️ समुद्र मंथन के दौरान क्या–क्या प्राप्त हुआ था?
सबसे पहले समुद्र से विश्व का सबसे भयंकर हलाहल कालकुट विष निकला। कालकुट के विष से सभी देव और दानव कमजोर पड़ने लगे।उसकी विषैली अग्नि से दसों दिशाओं में हाहाकार मच गया।
इस हलाहाल को धारण करने की क्षमता केवल शिव में ही थी।उन्होंने हलाहल को पीना शुरू किया।लेकिन माता पार्वती की शक्ति से विष को शिव के कंठ में ही रोक दिया।इसी कारण भगवान शिव को नीलकंठ भी कहा जाता है।
चंद्रदेव निकले,जो फिर से भगवान शिव के माथे पर विराजमान हो गए।
अब मंथन करते समय कामधेनु गाय निकली,जो ऋषि वशिष्ठ को दी गई।
इसके पश्चात, उच्चै: श्रवा नाम का सात मुखवाला घोड़ा निकाला,जो दानवों को मिला।
बाद में ऐरावत हाथी निकाला,जो देवों के राजा इंद्र को मिला।
अब समुद्र मंथन से वारुणी कन्या,सारंग धनुष निकला ,जो दानवों को मिला।
इसके बाद कल्पवृक्ष,रंभा,परिजात वृक्ष, शंख निकले जो देवों को मिला।
अब समुद्र से श्री प्रकट हुई,जिन्होंने भगवान नारायण का वरण किया।
इस प्रकार कई अन्य रत्न प्राप्त होने के बाद आखिर में धनवंतरी वैध अपने हाथ में अमृत कलश लेकर निकले।
अमृत देखते ही सभी देव और दानव के बीच उसे प्राप्त करने के लिए संघर्ष शुरू हुआ।
इसी कारण नारायण ने मोहिनी रूप धारण करके अमृत कलश को लेकर अमृत देवों को पिला दिया।
लेकिन ,दानवों में सुरभानु नाम का एक दानव था,जो छल करके देवों में सम्मिलित हो गया और उसने अमृत पी लिया।
जब नारायण को यह ज्ञात हुआ तो उन्होंने अपने सुदर्शन चक्र से सुरभानू के सिर को धड़ से अलग कर दिया।
लेकिन सुरभानू ने अमृत पी लिया था।इसी कारण उसकी मृत्यु नही हुई।वह दो भागो में जीवित रह गया।
सिर का भाग राहु और धड़ का भाग केतु के नाम से जानते हैं।
इस प्रकार समुद्र मंथन पूरा हुआ।
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